भूमिका: भाषा से आगे, राजनीति की चालें
हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने के निर्णय पर महाराष्ट्र सरकार ने आखिरकार यू-टर्न लेते हुए दोनों सरकारी आदेश रद्द कर दिए हैं। लेकिन यह घटनाक्रम केवल एक शैक्षणिक नीति नहीं थी—इसके पीछे क्षेत्रीय अस्मिता, राजनीतिक अस्तित्व और जनभावनाओं की परतें छिपी थीं। मराठी अस्मिता की पुनरावृत्ति के बीच राज और उद्धव ठाकरे की एकजुटता ने इस विवाद को एक नई सियासी दिशा दे दी।
📝 विवाद की शुरुआत: एक आदेश और उसका विरोध
- अप्रैल 2025 में महाराष्ट्र सरकार ने हिंदी को कक्षा 1 से 5 तक की पढ़ाई में तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का आदेश जारी किया।
- इस फैसले के विरोध में शिवसेना (UBT)और **मनसे ने मिलकर 5 जुलाई को महारैली का ऐलान किया।
- भाषाई पहचान के सवाल पर जनता के बढ़ते विरोध ने सरकार को पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया।
🧠 ठाकरे बनाम सत्ता: क्या यह वापसी की पटकथा है?
- 20 वर्षों बाद, राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे ने पहली बार एक साथ मंच साझा किया।
- भाषणों में हिंदी अनिवार्यता को “महाराष्ट्र को बांटने की साजिश” बताया गया और राज्य सरकार पर जनभावनाओं की अनदेखी का आरोप लगाया गया।
- यह मंचन बाल ठाकरे की विरासत और मराठी वोट बैंक को फिर से संगठित करने की एक स्पष्ट राजनीतिक रणनीति थी।
🛑 सरकार का निर्णय: दबाव, दूरदर्शिता या चुनाव की तैयारी?
- 29 जून को मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार ने संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में GR रद्द करने की घोषणा की।
- हिंदी अब केवल वैकल्पिक भाषा होगी और त्रिभाषा नीति पर एक नई समिति सुझाव देगी।
- सरकार ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय “मराठी छात्रोंकी प्राथमिकताऔर “,जनभावना के सम्मान” को ध्यान में रखकर लिया गया।
📊 प्रभाव और आगे का मार्ग
- प्रशासनिक दृष्टि से, यह घटना एक चेतावनी है कि भाषा नीति बनाते समय जन-संवेदनशीलता का ध्यान अत्यंत आवश्यक है।
- राजनीतिक रूप से, ठाकरे बंधुओं की एकता एक संभावित गठबंधन या चुनावी समीकरण को जन्म दे सकती है।
- सामाजिक स्तर पर, यह घटनाक्रम बताता है कि महाराष्ट्र में भाषा सिर्फ ज़ुबान नहीं,
- पहचान और परंपरा
- से जुड़ी भावना है।
✅ निष्कर्ष: सत्ता, अस्मिता और संवाद की त्रिकोणीय जंग
हिंदी अनिवार्यता का निर्णय रद्द करना केवल एक नीति परिवर्तन नहीं—बल्कि एक जनादेश है सामाजिक समरसता के पक्ष में। ठाकरे बंधुओं की सक्रियता और सरकार की प्रतिक्रिया ने यह भी दिखाया कि महाराष्ट्र की राजनीति में भाषा एक बार फिर सियासत का संवेदनशील केंद्र बन चुकी है। अब देखना यह है कि क्या यह संवाद की शुरुआत होगी, या फिर सत्ता और अस्मिता की यह लड़ाई और तेज़ हो जाएगी।