उत्तर प्रदेश की सत्ता को लेकर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने जोड़-तोड़ और सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति तेज कर दी है। हाल ही में भाजपा ने प्रदेश के 69 जिलों में नए जिलाध्यक्षों की सूची जारी की है, जिससे पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को एक स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की है। हालांकि, राजनीति के जानकार मानते हैं कि यह कदम समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लिए सियासी अवसर भी बन सकता है।
भाजपा आलाकमान ने लंबे विचार-विमर्श के बाद 70 जिलाध्यक्षों की सूची जारी की है, जिनमें 55.71 प्रतिशत पद सवर्ण समुदाय को दिए गए हैं। इसके अलावा, 25 ओबीसी और 6 दलित नेताओं को जिले की कमान सौंपी गई है।
15% जनसंख्या, 55.71% भागीदारी – विपक्ष को मिला मुद्दा
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, भाजपा का यह कदम साफ दिखाता है कि पार्टी सवर्णों को किसी भी सूरत में नाराज नहीं करना चाहती। 15% सवर्ण जनसंख्या के अनुपात में उन्हें 55.71% प्रतिनिधित्व देना पार्टी की रणनीति को दर्शाता है। वहीं, 28 जिलों में अभी भी संगठनात्मक खींचतान के चलते जिलाध्यक्ष नहीं बन पाए हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि पार्टी के अंदरूनी समीकरण अब भी पूरी तरह से संतुलित नहीं हो पाए हैं।

PDA फार्मूला बना विपक्ष का हथियार
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस लगातार आबादी के अनुपात में भागीदारी यानी “PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक)” फार्मूले की वकालत करते आ रहे हैं। अखिलेश यादव और राहुल गांधी जैसे नेता इस मुद्दे को बार-बार उठाते हैं। भाजपा की नई सूची में ओबीसी, एससी और मुस्लिम समुदाय की कम भागीदारी को विपक्ष एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना सकता है।
क्या योगी सरकार की सीट खतरे में पड़ सकती है?
यदि विपक्ष इस मुद्दे को सही तरीके से भुना लेता है और पिछड़े, दलित, मुस्लिम वोट बैंक को एकजुट कर पाता है, तो यह योगी आदित्यनाथ सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। लोकसभा चुनाव में भी विपक्ष ने इसी तरह के मुद्दों पर भाजपा को घेरने की कोशिश की थी, और अब विधानसभा चुनाव 2027 की तैयारियों में भी यही रणनीति दोहराई जा सकती है।