चमोली (उत्तराखंड) – भारतीय इतिहास में 1970 के दशक का प्रारंभिक दौर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा। उत्तराखंड के चमोली जिले में संघ के प्रचार की शुरुआत भी इसी दौर में हुई। इसके पीछे की कहानी आज भी प्रेरणादायक है।
एक पूर्व प्रचारक ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि वे पूर्व में सिचाई विभाग के रामगंगा बांध चिकित्सालय, कालागढ़ (पौड़ी गढ़वाल) में फार्मासिस्ट के पद पर कार्यरत थे। जुलाई 1971 में वे राज्य सेवा छोड़कर संघ के प्रचारक बन गए और चमोली जिले में पहुँचे।
इस जिले में उनका प्रारंभिक कार्यक्षेत्र चमोली एवं कर्णप्रयाग तहसील तक सीमित था, जो मार्च 1973 में जोशीमठ तहसील तक बढ़ गया। इस प्रकार चमोली की चार तहसीलों में से तीन उनके कार्यक्षेत्र में आ गईं।
उन्होंने बताया कि उस समय कांग्रेस पार्टी संघ के विचारधारा के विस्तार को रोकने के लिए जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और वर्गवाद के माध्यम से समाज में विभाजन की नीति अपना रही थी।
चमोली में संघ के प्रचार के दौरान उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। उन्हें “देसी” कहकर विरोध किया गया। साम, दाम, भेद और दंड की नीति अपनाकर उन्हें वहां से भगाने का प्रयास किया गया। लेकिन घर के संस्कारों और संघ की प्रेरणा से वे अपने कार्य में अडिग रहे।
एक वर्ष के प्रयास के बावजूद वे संघ के शिक्षा वर्ग में किसी को नहीं भेज पाए। यह असफलता उनके लिए भारी मानसिक कष्ट का कारण बनी। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और पुनः प्रयास शुरू कर दिए।
अंततः दो वर्षों के परिश्रम के बाद वे तीन स्वयंसेवकों को शिक्षा वर्ग में भेजने में सफल रहे। इनमें गोपेश्वर के विद्यार्थी राकेश भट्ट, मनवीर सिंह रावत तथा कर्णप्रयाग के रामजीवन शुक्ला शामिल थे।
उल्लेखनीय है कि तीसरे स्वयंसेवक को वर्ग में भेजने के लिए उन्होंने एक ही दिन में 111 किलोमीटर साइकिल चलाई थी। गोपेश्वर से रवाना होकर वे कर्णप्रयाग, सिमली, गैरसैण और फिर थराली पहुँचे। इस दौरान आदिबद्री के पास साइकिल फिसलने से उनके दोनों घुटने छिल गए। डिमरी जी नामक एक वैद्य ने उनकी घुटनों पर पट्टी बांधी और उसके बाद भी वे 38 किमी की चढ़ाई तय कर रात नौ बजे थराली पहुँचे।
इस प्रकार चमोली में संघ के प्रचार की यह यात्रा न केवल एक व्यक्तिगत संघर्ष की कहानी है, बल्कि संघ के विचारों के प्रसार की दृढ़ता का भी प्रतीक है।